Lekhika Ranchi

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उपन्यास-गोदान-मुंशी प्रेमचंद


गोदान

'एक सौ बीस मिले; पर सब वहीं लुट गये, धेला भी न बचा। '
धनिया सिर से पाँव तक भस्म हो उठी। मन में ऐसा उद्वेग उठा कि अपना मुँह नोच ले। बोली -- तुम जैसा घामड़ आदमी भगवान् ने क्यों रचा, कहीं मिलते तो उनसे पूछती। तुम्हारे साथ सारी ज़िन्दगी तलख़ हो गयी, भगवान् मौत भी नहीं देते कि जंजाल से जान छूटे। उठाकर सारे रुपए बहनोईयों को दे दिये। अब और कौन आमदनी है, जिससे गोई आयेगी। हल में क्या मुझे जोतोगे, या आप जुतोगे? मैं कहती हूँ, तुम बूढ़े हुए, तुम्हें इतनी अक्ल भी नहीं आई कि गोईं-भर के रुपए तो निकाल लेते! कोई तुम्हारे हाथ से छीन थोड़े लेता। पूस की यह ठंड और किसी की देह पर लत्ता नहीं। ले जाओ सबको नदी में डुबा दो। सिसक-सिसक कर मरने से तो एक दिन मर जाना फिर अच्छा है। कब तक पुआल में घुसकर रात काटेंगे और पुआल में घुस भी लें, तो पुआल खाकर रहा तो न जायगा! तुम्हारी इच्छा हो घास ही खाओ, हमसे तो घास न खायी जायगी।
यह कहते-कहते वह मुस्करा पड़ी। इतनी देर में उसकी समझ में यह बात आने लगी थी कि महाजन जब सिर पर सवार हो जाय, और अपने हाथ में रुपए हों और महाजन जानता हो कि इसके पास रुपए हैं, तो असामी कैसे अपनी जान बचा सकता है! होरी सिर नीचा किये अपने भाग्य को रो रहा था। धनिया का मुस्कराना उसे न दिखायी दिया। बोला -- मजूरी तो मिलेगी। मजूरी करके खायँगे।
धनिया ने पूछा -- कहाँ है इस गाँव में मजूरी? और कौन मुँह लेकर मजूरी करोगे? महतो नहीं कहलाते!
होरी ने चिलम के कई कश लगाकर कहा -- मजूरी करना कोई पाप नहीं है। मजूर बन जाय तो किसान हो जाता है। किसान बिगड़ जाय तो मजूर हो जाता है। मजूरी करना भाग्य में न होता तो यह सब बिपत क्यों आती? क्यों गाय मरती? क्यों लड़का नालायक़ निकल जाता?
धनिया ने बहू और बेटियों की ओर देखकर कहा -- तुम सब की सब क्यों घेरे खड़ी हो, जाकर अपना-अपना काम देखो। वह और हैं जो हाट-बाज़ार से आते हैं, तो बाल-बच्चों के लिए दो-चार पैसे की कोई चीज़ लिये आते हैं। यहाँ तो यह लोभ लग रहा होगा कि रुपए तुड़ायें कैसे? एक कम न हो जायगा; इसी से इनकी कमाई में बरक्कत नहीं होती। जो ख़रच करते हैं, उन्हें मिलता है। जो न खा सकें, न पहन सकें, उन्हें रुपए मिले ही क्यों? ज़मीन में गाड़ने के लिए?
होरी ने खिलखिलाकर पूछा -- कहाँ है वह गाड़ी हुई थाती?
'जहाँ रखी है, वहीं होगी। रोना तो यही है कि यह जानते हुए भी पैसों के लिए मरते हो! चार पैसे की कोई चीज़ लाकर बच्चों के हाथ पर रख देते तो पानी में न पड़ जाते। झिंगुरी से तुम कह देते कि एक रुपया मुझे दे दो, नहीं मैं तुम्हें एक पैसा न दूँगा, जाकर अदालत में लेना, तो वह ज़रूर दे देता। '
होरी लज्जित हो गया। अगर वह झल्लाकर पच्चीसों रुपये नोखेराम को न दे देता, तो नोखे क्या कर लेते? बहुत होता बक़ाया पर दो-चार आना सूद ले लेता; मगर अब तो चूक हो गयी! झुनिया ने भीतर जाकर सोना से कहा -- मुझे तो दादा पर बड़ी दया आती है। बेचारे दिन-भर के थके-माँदे घर आये, तो अम्माँ कोसने लगीं। महाजन गला दबाये था, तो क्या करते बेचारे!
'तो बैल कहाँ से आयेंगे? '
'महाजन अपने रुपए चाहता है। उसे तुम्हारे घर के दुखड़ों से क्या मतलब? '
'अम्माँ वहाँ होतीं, तो महाजन को मज़ा चखा देतीं। अभागा रोकर रह जाता। '
झुनिया ने दिल्लगी की -- तो यहाँ रुपये की कौन कमी है। तुम महाजन से ज़रा हँसकर बोल दो, देखो सारे रुपए छोड़ देता है कि नहीं। सच कहती हूँ, दादा का सारा दुख-दलिद्दर दूर हो जाय।
सोना ने दोनों हाथों से उसका मुँह दबाकर कहा -- बस, चुप ही रहना, नहीं कहे देती हूँ। अभी जाकर अम्माँ से मातादीन की सारी क़लई खोल दूँ तो रोने लगो।
झुनिया ने पूछा -- क्या कह दोगी अम्माँ से? कहने को कोई बात भी हो। जब वह किसी बहाने से घर में आ जाते हैं, तो क्या कह दूँ कि निकल जाओ, फिर मुझसे कुछ ले तो नहीं जाते। कुछ अपना ही दे जाते हैं। सिवाय मीठी-मीठी बातों के वह झुनिया से कुछ नहीं पा सकते! और अपनी मीठी बातों को महँगे दामों बेचना भी मुझे आता है। मैं ऐसी अनाड़ी नहीं हूँ कि किसी के झाँसे में आ जाऊँ। हाँ, जब जान जाऊँगी कि तुम्हारे भैया ने वहाँ किसी को रख लिया है, तब की नहीं चलाती। तब मेरे ऊपर किसी का कोई बन्धन न रहेगा। अभी तो मुझे विश्वास है कि वह मेरे हैं और मेरे ही कारन उन्हें गली-गली ठोकर खाना पड़ रहा है। हँसने-बोलने की बात न्यारी है, पर मैं उनसे विश्वासघात न करूँगी। जो एक से दो का हुआ, वह किसी का नहीं रहता।
शोभा ने आकर होरी को पुकारा और पटेश्वरी के रुपए उसके हाथ में रखकर बोला -- भैया, तुम जाकर ये रुपए लाला को दे दो। मुझे उस घड़ी न जाने क्या हो गया था।
होरी रुपए लेकर उठा ही था कि शंख की ध्वनि कानों में आयी। गाँव के उस सिरे पर ध्यानसिंह नाम के एक ठाकुर रहते थे। पल्टन में नौकर थे और कई दिन हुए, दस साल के बाद रजा लेकर आये थे। बगदाद, अदन, सिंगापुर, बर्मा -- चारों तरफ़ घूम चुके थे। अब ब्याह करने की धुन में थे। इसीलिए पूजा-पाठ करके ब्राह्मणों को प्रसन्न रखना चाहते थे। होरी ने कहा -- जान पड़ता है सातों अध्याय पूरे हो गये। आरती हो रही है।
शोभा बोला -- हाँ, जान तो पड़ता है, चलो आरती ले लो।
होरी ने चिन्तित भाव से कहा -- तुम जाओ, मैं थोड़ी देर में आता हूँ।
ध्यानसिंह जिस दिन आये थे, सब के घर सेर-सेर भर मिठाई बैना भेजी थी। होरी से जब कभी रास्ते मिल जाते, कुशल पूछते। उनकी कथा में जाकर आरती में कुछ न देना अपमान की बात थी। आरती का थाल उन्हीं के हाथ में होगा। उनके सामने होरी कैसे ख़ाली हाथ आरती ले लेगा! इससे तो कहीं अच्छा है कि वह कथा में जाये ही नहीं। इतने आदमियों में उन्हें क्या याद आयेगी कि होरी नहीं आया। कोई रजिस्टर लिये तो बैठा नहीं है कि कौन आया, कौन नहीं आया। वह जाकर खाट पर लेट रहा। मगर उसका हृदय मसोस-मसोस कर रह जाता था। उसके पास एक पैसा भी नहीं है! ताँबे का एक पैसा! आरती के पुण्य और माहात्म्य का उसे बिलकुल ध्यान न था। बात थी केवल व्यवहार की। ठाकुरजी की आरती तो वह केवल श्रद्धा की भेंट देकर ले सकता था; लेकिन मर्यादा कैसे तोड़े, सबकी आँखों में हेठा कैसे बने! सहसा वह उठ बैठा। क्यों मर्यादा की ग़ुलामी करे। मर्यादा के पीछे आरती का पुण्य क्यों छोड़े। लोग हँसेंगे, हँस लें। उसे परवा नहीं है। भगवान् उसे कुकर्म से बचाये रखें, और वह कुछ नहीं चाहता। वह ठाकुर के घर की ओर चल पड़ा।

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